Tuesday, May 11, 2010

कोई उम्मीद बर नहीं आती

कोई उम्मीद बर नहीं आती
कोई सूरत नज़र नहीं आती

मौत का एक दिन मुअययन है
नींद क्यूँ रात भर नहीं आती

आगे आती थी हाले-दिल पर हंसी
अब किसी बात पर नहीं आती

जानता हूँ सवाबे तात-ओ जुहूद
पर तबीयत इधर नहीं आती
("सवाबे तात-ओ जुहूद" बोले तो - अच्छे कर्मों का फल,पुण्य-कर्म)

हम वहाँ हैं जहाँ से हमको भी
कुछ हमारी खबर नाही आती

कोई सूरत नज़र नहीं आती
कोई उम्मीद बर नही आती

मरते हैं आरज़ू में मरने की
मौत आती है पर नहीं आती

है कुछ ऐसी ही बात जो चुप हूँ
वरना क्या बात कर नहीं आती

काबे किस मुँह से जाओगे गालिब
शर्म तुमको मगर नहीं आती

(ये मेरे नहीं..ग़ालिब चाचा के शेर हैं, श्रद्धा के हिसाब से छाप सकते हैं )

1 comment:

Unknown said...

life now says to me just like it............................