Saturday, September 25, 2010

खामोश पत्थर

इतने महीने, इतने दिन, इतने लम्हे
पैसों ने सब कुछ जुदा कर दिया
हम को तुम से, तुम को हम से.
जब भी देखता हूँ, वो जगहें
जहां हम मिलते थे तुमसे
याद आते हैं वो पल
जब तुम मेरे लिए सब कुछ थे..

लगता है वो पत्थर जिन पर हम साथ बैठे थे ,
वो दीवारें जिन्होंने हमें साथ देखा था
अब बोल पड़ेंगी, तब बोल पड़ेंगी...
"अब तुम दोनों यहाँ क्यों नहीं आते?"
क्या ज़वाब दूं मैं उनको?

हो सकता है
कुदरत का कोई करिश्मा हो
और हम तुम दूर करें
इन पत्थरों, दीवारों की शिकायतें

4 comments:

गजेन्द्र सिंह said...

शानदार प्रस्तुति .......
अच्छी पंक्तिया है ........

पढ़िए और मुस्कुराइए :-
क्या आप भी थर्मस इस्तेमाल करते है ?

Dharni said...

धन्यवाद गजेन्द्र और आशा जी!

निर्मला कपिला said...

जरूर आयेगा वो लम्हा
सुन्दर अभिव्यक्ति। शुभकामनायें।

Manish aka Manu Majaal said...

लगता है पैसों को बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी साहब,
लिखते रहिये ...