Sunday, December 27, 2009

ग़ज़ल

फर्क क्या पड़ता है तुम आओगे के न आओगे
ये तेरा नाम फिज़ाओं में लिखा रक्खा है

है ये मुमकिन नहीं यादों को तेरी मिट जाना
तेरे उन ख़तो को किताबों में छुपा रक्खा है

है ये आसाँ नहीं इस जहाँ में तेरा गुम होना
वो तेरा नाम हवाओं को बता रक्खा है

कैसे गुस्ताख गुलों पर मैं भरोसा कर लूँ
मेरे इस चमन को कांटों ने बचा रक्खा है

7 comments:

विनोद कुमार पांडेय said...

है ये मुमकिन नहीं यादों को तेरी मिट जाना
तेरे उन ख़तो को किताबों में छुपा रक्खा है

सुंदर अभिव्यक्ति..आभार!!!

Dharni said...

धन्यवाद!

Udan Tashtari said...

बहुत बढ़िया!!


यह अत्यंत हर्ष का विषय है कि आप हिंदी में सार्थक लेखन कर रहे हैं।

हिन्दी के प्रसार एवं प्रचार में आपका योगदान सराहनीय है.

मेरी शुभकामनाएँ आपके साथ हैं.

निवेदन है कि नए लोगों को जोड़ें एवं पुरानों को प्रोत्साहित करें - यही हिंदी की सच्ची सेवा है।

एक नया हिंदी चिट्ठा किसी नए व्यक्ति से भी शुरू करवाएँ और हिंदी चिट्ठों की संख्या बढ़ाने और विविधता प्रदान करने में योगदान करें।

आपका साधुवाद!!

शुभकामनाएँ!

समीर लाल
उड़न तश्तरी

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून said...

सुंदर भावाभिव्यक्ति.

Dharni said...

समीर जी और काजल जी, हौसला-आफजाई के लिए शुक्रिया!

अनूप शुक्ल said...

सुन्दर है।

Dharni said...

शुक्रिया शुक्ल जी!