यह पहली बार नहीं है जब मैं यह सोच रहा हूँ। पिछले कुछ दिनों मे गाड़ी चलाते समय भिन्न भिन्न प्रकार के विचार आये परंतु घर आते ही सब गायब..और फिर समय नहीं मिल सका। कभी सोचा कि बचपन की किसी घटना के बारे में लिखूं...फिर कभी सोचा कि हिन्दी के बारे में लिखूँ। फिर कभी सोचा कि कोई कविता लिखी जाए...पर इस सब के लिये समय का होना ज़रूरी है...और ज़रूरी है कि संगणक के सामने आने तक विचार याद रहें।
खैर ...पिछले कुछ हफ्तों से पास के मन्दिर में कई बार गया। पहले तो नवरात्र के दौरान और फिर 'अखंड रामायण' (रामचरित मानस पाठ) के दौरान। रामचरित मानस पाठ मे लोगों की श्रद्धा देख कर मैं चकित हो गया। अपने बचपन के दिन याद आ गये जब हम लोगों के यहाँ पाठ करने जाते थे या लोग हमारे यहाँ आते थे। आज लोग कितने व्यस्त हो गए हैं। न किसी के पास किसी और के यहाँ जाने का बहाना है न कोई अपने यहाँ लोगों को आने का न्योता दे रहा है। ऐसा नहीं कि कोई किसी के यहाँ आता जाता नहीं, पर अब अवसर कम हो गये हैं और औपचारिकता मात्र रह गयी है (जन्मदिन वगैरह) । लोगों का व्यवहार-वृत्त सिकुड़ गया है। मनोरंजन के तरीके भी ऐसे हो गये हैं कि जिसमें बस दो चार लोगो के ग्रुप से ही काम चल जाए । ऐसा नहीं कि दर्ज़न भर पड़ोसी मिल कर एक साथ एक फिल्म या 'रामायण' सीरियल का मज़ा लें। सब के पास अपने अपने साधन हो गये हैं और मिल बांट कर खाने का कोई बहाना ही नहीं रह गया है।
बचपन में मैं जब लोगों से सुनता था कि बम्बई जैसे शहर में पड़ोसी एक दूसरे को जानते तक नहीं हैं तब मुझे घोर आश्चर्य होता था और सोचता था कि मैं कितना किस्मतवाला हूं जो ऐसे शहर में नहीं हूँ। पर बाद में जहाँ भी रहा, शायद ही कोई पड़ोसी अपने पड़ोसी को जानता हो। मुझे याद है कि हमारे घर में एक दुखद घटना की खबर देने हमारे पड़ोस की आंटी ऐसे रोते हुए आई थीं जैसे उनके घर में कुछ हो गया हो। (हमारे यहाँ फोन नहीं था अत: यह खबर किसीने उनको फोन पर देकर हमें बताने को कहा था)। आस पास के पड़ोसियों के रिश्तेदारो को भी अपने ही रिश्तेदार की तरह समझते थे लोग। आज हमारे एक ही घर में सेल्फोन वगैरह मिला कर 4-5 फोन हो गये हैं और एक एक को अलग अलग फोन करना पड़ता है। वक़्त बदला और सबके पास अपने अपने रंगीन टीवी -वीसीआर हो गये और अब कोई किसी के यहाँ 'महाभारत' या 'रामलखन' देखने नहीं जाता। बचपन में मेरे घर पर हुई 'वीसीआर' पार्टी (योँ) पर इतने सारे बड़े बूढ़े और बच्चे इकट्ठा होते थे कि मज़ा आ जाता था। 'रामायण' देखने तो लोग अपने दूर दूर के दोस्तों को बुला कर लाते थे...वो भी बिना पूछी हुए...और हम सबका अपने मेहमान की तरह स्वागत करते और एक एक के लिये चाय पानी का इंतेज़ाम करते। कई कई बार तो करीब चालीस लोग हो जाते...और कोई भी पूर्व सूचना या निमंत्रण देकर नहीं आता था। सोचिये हर हफ्ते पार्टी बिना किसी बुलावे के!
समाज/विज्ञान की प्रगति भी लोगों में बढ़्ती दूरियोँ का कारण है। सोचिये जब लोगों के सारे काम (रेल टिकट या खरीदारी) जब इंटर्नेट या फोन पर हो जाएँ तो लोग एक दूसरे से क्यों बोलेंगे? रेल टिकट में धांधली नहीं होगी तो शुक्ला जी को रेल विभाग के गुप्ता जी से 'स्पेशल कोटा ' वाला टिकट का इंतेज़ाम करने के लिये क्योँ कहना पड़ेगा? सब्ज़ी की होम डेलेवरी होती है तो श्रीवास्तव जी और तिवारी जी क्यों एक साथ थैला लेकर बाज़ार जायेंगे? अब अगर हर डिपाट्मेंट में करप्शन नहीं होगा हमें दर्ज़नों पड़ोसियों से सहायता क्यों लेनी पड़ेगी।
ज़रा सोचिये...कि अगर यह इंटर्नेट नहीं हो तो मैं यह ब्लोग लिखने के बजाए किसी पड़ोसी/मित्र के पास जाकर यही बातें उसको बता रहा होता, और इस तरह वार्तालाप/मेल-मिलाप का एक और बहाना मिलता। आप क्या सोचते हैं?
1 comment:
कुछ साल पहिले एक किताब 'Who moved my chese' by Spencer Jonson पढ़ी थी बदलाव को समझना ही जीवन है|
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